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Showing posts from January, 2021

अब भी नहीं उतरा

 वो मेरे जिस्म में उलझा रहा, न रूह में उतरा, ख़यालों में रहा बस वो लफ्फ्जों में नहीं उतरा ।  सोचा नहीं था इस कदर वो बदल जाएगा, कच्चा रंग था इसी बरसात में उतरा ।  उसने तो कहा था खुश है वो इस दोस्ती में ही मगर अब क्या हुआ उसका चेहरा है क्यूँ उतरा ।  तूफां का नहीं अब डर मगर वो सोचता क्या है, उतर जाये ये लगता है कि दरिया भी है उतरा ।  क़स्बाई मुहब्बत में कशिस तो खूब रहती है अच्छा है कि फूहड़पन शहरों का नहीं उतरा।  ये मालूम है मुझको वो दिल में सोचते क्या हैं, मुझे इतनी तस्सली है जुबां पर वो नहीं उतरा ।  वो असली है नहीं फिर भी वो सोने सा दमकता है, नहीं मालूम है उसको कि अभी पानी नहीं उतरा ।  मुद्दत हुई ये दिल भी कब का भर गया है अब, ज़रा सी है कमी बाँकी वो आँखों से नहीं उतरा ।  हमीं ने प्यार में उसको अपने सिर चढ़ाया था, न जाने क्यूँ ज़मीं पर वो अब भी नहीं उतरा ।  वो मिलता जब भी हमसे वो हमेशा मुस्कराता है, न जाने बात क्या है शस वो दिल में नहीं उतरा ।  सुधीर है नहीं ऐसा की उसको भूल पाओगे, जिस पर चढ़ गया है रंग अपना फिर नहीं उतरा ।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय हमारी शान है

यह देव संस्कृति विश्वविद्यालय हमारी शान है, इसमें शिक्षा के सहित विद्या का भी सम्मान है। ज्ञान और विज्ञान के पथ हैं सभी मिलते जहाँ, नित्य नूतन शोध के रस्ते सभी खुलते जहाँ, अज्ञान के तम से घिरे इस विश्व का दिनमान है, यह देव संस्कृति विश्वविद्यालय हमारी शान है। ऐसा संगम मिल नहीं सकता कही संसार में, कोई सीमा है नहीं सब कुछ यहाँ विस्तार में, विश्व के हर देश के विद्यार्थियों का मान है, यह देव संस्कृति विश्वविद्यालय हमारी शान है। जीवन को जीने की कला के सूत्र सब मिलते यहाँ, गीता के श्लोकों के नए संदर्भ भी  खुलते यहाँ, कुलमाता स्वयं हैं भगवती और कुलपिता श्रीराम हैं, यह देव संस्कृति विश्वविद्यालय हमारी शान है। ज्ञान की धारा सदा चिन्मय यहाँ मृण्मय नहीं, गूंजता है नित प्रणव स्वर छात्रहित चिंतन यहीं, आचरण शिक्षण यहाँ का, हर क्रिया ही ध्यान है, यह देव संस्कृति विश्वविद्यालय हमारी शान है।

माँ भगवती वरदान दो

मातु भगवती फिर हमें वात्सल्य का अनुदान दो । अब फिर वही आँचल हमें ममता भरा वरदान दो । हमने हैं अर्जित किये साधन बहुत संतोष खोकर, चाहते हैं शांति मन की रुक गए हैं क्लान्त होकर, क्या करें अब सूझता कुछ भी नहीं विश्वास दो, मातु भगवती फिर हमें वात्सल्य का अनुदान दो । हमको बस इतना पता है हम अकिंचन सुत तुम्हारे, तुम हमें दो मार्गदर्शन दूर हों (सब दुःख)अवगुन हमारे, मार्ग के संकेत सब उलझे हुए हैं ज्ञान दो, मातु भगवती फिर हमें वात्सल्य का अनुदान दो । सब मिला पर मिल न पाया प्यार और करुणा हमें, अब निकट के सुख सभी हैं, बोझ से लगते हमें, गोद में स्थान दो ममता की फिर से पPछाहँ दो, माँ भगवती अब फिर हमें वात्सल्य का अनुदान दो।   हम भरोसा हैं दिलाते आपको इस बात का, फिर जुटेंगे कर्म में, चिंतन नहीं दिनरात का, अब यही है लक्ष्य जीवन में हमें सद्ज्ञान दो, मातु भगवती फिर हमें वात्सल्य का अनुदान दो ।                                  ...

सफलता के सोपान

जो गलता बीज मिट्टी में, वही अंकुर है बन पाता, सहकर ताप-शीतलता ही पादप  वृक्ष बन जाता , जो प्रतिपल सीख है लेता, न डरता है विफलता से, वही मानव वरण करता विजयश्री का सफलता से । जो बढ़कर थाम लेता है स्वयं पतवार हाथों से, जो डरता है नहीं तूफान से या झंझावातों से, लहरें भी पराजित होती हैं मन की सबलता से, वही मानव वरण करता विजयश्री का सफलता से । जिसका लक्ष्य आंखों में सतत और कर्म में दृढ़ता, उसी का है सफल जीवन वही मानक नए गढ़ता, जो पीकर आँसुओं का जल नहीं रोता विकलता से, वही मानव वरण करता विजयश्री का सफलता से । जो डरकर हैं नहीं रुकता  न अवरोधों से घबराता, उसकी राह का अवरोध भी सोपान बन जाता, जिसके मन,वचन और कर्म तीनों मुक्त हैं छल से, वही मानव वरण करता विजयश्री का सफलता से ।

ध्वज हमारे राष्ट्र का सिरमौर

यह ध्वज हमारे राष्ट्र का सिरमौर है सम्मान है, इसके लिए न जाने कितने हो चुके बलिदान हैं। हमने चढ़ाया शीश पर इसको सदा फहराया है,  अनगिनत दृढ़ हाथों ने इसको सदा लहराया है, रंग केसरिया का इसमे इसलिए स्थान है, यह ध्वज हमारे राष्ट्र का सिरमौर है सम्मान है। निष्कपट, छलहीनता, बेदाग मन व्यवहार है शौर्य तो फैला क्षितिज तक पर सौम्यता आधार है, श्वेत ध्वज के मध्य रखना शान्ति की पहचान है, यह ध्वज हमारे राष्ट्र का सिरमौर है सम्मान है। हमने समृद्धि की राहें श्रम की पूजा से निकाली, इसलिये हम चाहते हैं, सब के घर हो शुभ दीवाली, रंग हरा उपजाऊ धरती का सहज अनुमान है, यह ध्वज हमारे राष्ट्र का सिरमौर है सम्मान है। भिन्न मत को मानकर भी साथ सब रहते जहाँ, अनगिनत पथ आस्था के, धर्म के मिलते यहाँ, चक्र में चौबीस गुण और धर्मों का स्थान है, यह ध्वज हमारे राष्ट्र का सिरमौर है सम्मान है।

आपके द्वार- पहुंचा हरिद्वार

इतिहास बताता है हमको कि ऐसा पहली बार हुआ, घर-घर  गंगाजल पहुँचा और कुंभ स्वयं साकार हुआ। जब देवलोक से स्वयं सुरसरि कल-कल करती आई हैं, फिर क्यों मूर्छित पड़ी संस्कृति,  मानवता मुरझाई है, नव सृजन सैनिकों उठो-चलो अब, ये व्याकुल संसार हुआ, घर-घर  गंगाजल पहुँचा और कुंभ स्वयं साकार हुआ। बारह वर्षों से तृषित मनुज, आतुर था तट पर आने को, मां गंगा भी थीं व्याकुल, अमृत-घट फिर छलकाने को, था कठिन बहुत सबका आना, चिंतातुर ये संसार हुआ, घर-घर  गंगाजल पहुँचा और कुंभ स्वयं साकार हुआ। अमृत की हैं दिव्य बूँद, ये ऋषियों का चरणामृत है, सबको देगा यह प्राण नया जो हैं सुसुप्त, जो भी मृत हैं, सबतक गंगाजल पहुंचाकर, जन-जन का उद्धार हुआ  घर-घर  गंगाजल पहुँचा और कुंभ स्वयं साकार हुआ। वरदान सभी इसको समझें ये है प्रसाद देवालय का,LP in mlm आशीष भरा है ऋषियुग्म का, इसमें प्राण हिमालय का, **आज बहुत हर्षित हैं परिजन, युगतीर्थ प्रगट निज द्वार हुआ, / सजल-प्रखर प्रज्ञा है इसमें तीर्थ प्रगट निज द्वार हुआ, घर-घर  गंगाजल पहुँचा और कुंभ स्वयं साकार हुआ।             ...

युगऋषि की कार्यप्रणाली से इतिहास पुनः परिभाषित होगा |

नूतन वर्ष की वेला में  ,  उल्लास  नया संचारित    होगा , युगऋषि की कार्यप्रणाली से इतिहास पुनः परिभाषित होगा  | क्लेश और दुःख दैन्य रुदन बीती बातें हो जाएंगे , तम के संगी साथी भी सब धराशायी हो जायेंगे,   संकल्पों की शक्ति से  प्रतिमान नया स्थापित होगा ।   युगऋषि की कार्यप्रणाली से इतिहास पुनः परिभाषित होगा  | संघशक्ति पर आधारित  पुरुषार्थ सफल निश्चित होगा, संकल्प नये तब उभरेंगे, साहस    उत्साहजनित होगा , कोरी कल्पना नही होगी, सब तर्क-तथ्य प्रमाणिक होगा, युगऋषि की कार्यप्रणाली से इतिहास पुनः परिभाषित होगा  |   अपनी खुशियाँ सब बाँटेंगे, मन में अलगाव नहीं होगा, जिनके मन हैं श्रद्धापूरित उनमें  बिखराव नहीं होगा,  आत्म कसौटी में कसके, इंसान स्वयं अनुशासित होगा, युगऋषि की कार्यप्रणाली से इतिहास पुनः परिभाषित होगा  | घर घर गंगा जल पहुंचेगा ,  हर तृषित प्राण हर्षित होगा , गुरुवर के दिव्य संरक्षण में ,  उज्जवल भविष्य निश्चित होगा, नूतन वर्ष की वेला में  ,  उल्लास  नया संचारित  ...

मुक्तक - 1

 मत किसी को दर्द का संसार दो, मत फरेबों का कभी उपहार दो, यदि कहाना चाहते हो आदमी, तो वफादारी निभाओ, न ज्ञान दो ।1। पाप मत पालो  की कहीं धोना  पड़े, गांठ का संचय कहीं खोना पड़े, ज़िंदगी जिओ तो  फिर ऐसी जियो, की मौत को खुद मौत पर रोना पड़े ।2।

ऐसा उपकार कौन सा है जो गुरु ने हमपर किया नहीं

ऐसा उपकार कौन सा है जो गुरु ने हमपर किया नहीं । जरा दिल पर हाथ रखो सोचो, क्या गुरु ने हमको दिया नही , जब ह म  थे  नरपशु, अधम, हीन , दुर्भाग्य हमारा बलशाली, तब शुभ कर्मों का था अभाव,जन्मों से गागर थी खाली , थे अनगिन पाप चढ़े सिर पर, क्या होता हमको पता नही, ऐसा उपकार कौन सा है जो गुरु ने हमपर किया नहीं ।   हम थे अनगढ़, पत्थर जैसे, बेकार राह पर पड़े हुए। जब जीवन लक्ष्य नहीं था कुछ, ठहरे पानी से सड़े हुए, गुरु ही थे ऐसे शिल्पकार, छोड़ी गढ़ने में कसर नहीं, ऐसा उपकार कौन सा है जो गुरु ने हमपर किया नहीं ।   उनका था सर पर हाथ सदा, तब ही तो हमको मान मिला, हममें कमियां थीं भरी हुई पर देवों सा सम्मान मिला, फिर हम सबकुछ क्यो भूल गए , आभार हृदय से किया नहीं, ऐसा उपकार कौन सा है जो गुरु ने हमपर किया नहीं ।   वे वानर भालू अच्छे थे, उनके जीवन शुभ, सफल  हुए , सर्वस्व राम को अर्पित कर सेवा में तपकर प्रखर हुए, सबकुछ चरणों में चढ़ा दिया, फिर कुछ असमंजस किया नहीं, ऐसा उपकार कौन सा है जो गुरु ने तुमपर किया नहीं ।

भाग्य नहीं गुण कर्म प्रधान

*भाग्य नहीं गुण-कर्म प्रधान* यदि भाग्य मात्र होता सबकुछ, पुरुषार्थ मनुज फिर क्यों करता, सप्त सिंधु के पार कभी, मानव फिर कदम नहीं धरता ।1| उच्च हिमालय शिखरों पर, हमने ध्वज अपने फहराये, नभ के पार भी पहुंचे हम, पदचिन्ह चाँद पर धर आये |2| मरुथल की बंजर मिट्टी में, उद्यान लगाये हैं हमने धरती के अंदर जाकर भी, नवरत्न निकाले हैं हमने ।3| हमने अपने भुजबल से, नदियों का मार्ग भी मोड़ा है, हमने अपने ही हाथों  , गिरि का घमंड भी तोड़ा है ।4| कितना भी भीषण सागर हो, हमने हार न मानी है, उत्ताल विकट लहरों से भी, हमने लड़ने की ठानी है ।5| सुख दुःख तो ताना बना है  इसको जिसने पहचाना है, उसका जीवन काँटों में भी, फूलों सा मुस्काना है ।6| हमको न पराजय की चिन्ता, न जय पर है अभिमान हमें , हमको बस रहना कर्मनिरत, चाहे मान मिले-अपमान हमें |7|                *-सुधीर भारद्वाज*

मुक्तक-शब्दों में पिरोये मन के भाव

ये कविता मन के भावों में, शब्द पिरोना है फिर से, ये कविता सोयी चिंगारी, को है जगाना अब फिर से ।1। ये कविता उनपर है जिनने, खुद के पाँव कुल्हाड़ी मारी, ये कविता उनपर है जिनकी, उतरी नहीं है अब भी खुमारी ।2। इस कविता को पढ़कर सब, कालनेमि छुप जाएंगे, जिनके जख्म नहीं सूखे हैं, क्या वो चुप रह पायेंगे ।3। चुप रहना तो ऐसा जैसे, मुंह में दही जमा रक्खा है, चुप रहना तो ऐसा जैसे, खुद को दास बना रक्खा है ।4। जो चुप हैं उनसे है विनती, मुँह खोलें कुछ तो बोलें, जो चुप हैं मैं उनसे कहता , अपने मन की ग्रंथि खोलें ।5। अब तो समय सही आया है, अब दुष्टों से डरना क्या, मरना एक बार होता है, उससे पहले मरना क्या ।6। जिनको लगता था कि सब, आरोप सिद्ध हो जाएंगे, उनके अरमानों के शव अब, चील गिद्ध ही खाएंगे ।7। उनका शोणित शुद्ध नहीं है, उसमें बस गद्दारी है, नमक हलाली कैसे हो जब, कालनेमि से यारी है ।8। उनकी बातों को तो कुछने, सत्य वचन ही माना था, मुंह मे राम बगल में छूरी, कब उनने पहचाना था ।9। राखी के धागों को जिनने, तार-तार है कर डाला, भाई का अभिनय ऊपर से, अंदर था गड़बड़ झाला ।10। केव...