यह समय की मांग पर , रक्खा गया सिंदूर है, यह धधकती आग है, बलिदान का दस्तूर है । फिर किसी आतंक का उत्तर नहीं अब मौन है, अब नहीं अबला कोई भी, न कोई मजबूर है । यह नया भारत यहां पर, अब व्यवस्था है नई, अब हमारा शौर्य भी, जग में हुआ मशहूर है । यह नहीं श्रृंगार ,यह उत्तर है उनके पाप का अब क्षमा का स्वप्न भी आंखों से उनकी दूर है । उसने घृणा से जो रचा था ख्वाब था गजवा ऐ हिंद, हो चुका वो भी बिखरकर ख़्वाब चकनाचूर है । इतिहास उनकी हार का, इस बार भी बदला नहीं, पर मूर्खता की हद नहीं, वो दिख रहा मगरुर है । अब न कोई साथ भी दे, या समर्थन पक्ष में, अब हमारे बाजुओं में, शक्ति भी भरपूर है । — सुधीर 31 मई 2025
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