लगता हूं गले उनके अब आस्तीन चढ़ाके,
मिलते हुए न उसमें कहीं सांप डाल दें।
बातें तो उनकी रहती हैं शहद की तरह,
मधुमक्खी है न जाने कब वो डंक मार दें ।
गुलदस्ते थामिए मियां अब एहतियात से,
ख़ज़र छिपाके सीने में न वो उतार दें।
तारीफ़ हो तो सुनिए जरा नापतौल कर,
न जाने सरेआम कब इज़्ज़त उतार दें।
चेहरों पे मुखौटा लगाये भोलेपन का वो,
तोहमतें लगाके न गर्दन उतार दें ।
ये हंसते हुए चेहरे हैं ओढ़ा हुआ नकाब,
मौका मिला जो इनको हमें चीरफाड़ दें ।
पहले शरण के नाम पे चौखट पे आ गिरे,
डर हमको लग रहा है अब न बस्ती उजाड़ दें ।
— सुधीर
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