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Showing posts from December, 2020

नव वर्ष

अब रोना धोना बंद करो, अवसादों का अवसान करो, आने वाला है वर्ष नया, कुछ नए लक्ष्य संघान करो । ये आराम थकन की बातें तो, अच्छी लगती कुछ समय मगर, ये जीवन है चलते जाना, पिछड़ेंगे रुक गए अगर । मृग मरीचिका आयेंगी, मन को भी भटकाएंगी, तुम मत आना उस झांसे में, वो कसमें दे समझाएंगी । अपने विवेक की बांह पकड़, जो आगे बढ़ता जाएगा, हो लक्ष्य भले दुष्कर कितना, निश्चित पूरा हो जाएगा । जो गुजर चुके इन राहों से, उनका इतिहास पुराना है, अपना तो है लक्ष्य यही, खुद का इतिहास रचाना है । हम उस माटी के वंशज हैं, जिसमें जनमें हैं कर्मवीर, जो सत्यमार्ग से डिगे नहीं, तब ही कहलाये धर्मवीर । कहता सुधीर, न बनो अधीर, जो होगा देखा जाएगा, है कृष्णपक्ष जाना निश्चित, तब शुक्ल पक्ष फिर आएगा । - सुधीर भारद्वाज

मन की कालिख

*मन में कालिख लगी रहे तो रंग बसंती न चढ़ पाता,* *सबमें केवल दोष जो देखे, आगे कभी नहीं बढ़ पाता ।* जिनके आँचल में पल-बढ़ कर , पुष्ट हुए और खेले खाये,  उनकी शान में गुस्ताखी कर, कितने तुमने पाप कमाए? अब जब प्रश्न पूंछता है जग,  कच्चा चिट्ठा है खुलवाता, काल कड़ाही भेद न करती सब विकार ऊपर आ जाता । *मन में कालिख लगी रहे तो रंग बसंती न चढ़ पाता,* *सबमें केवल दोष जो देखे, आगे कभी नहीं बढ़ पाता ।* अफवाहों को सत्य मानकर जिसने भी दुंदुभी बजाई, मन ही मन पछताता होगा, जब उसने है मुंह की खाई, छिपकर वार जो करता कायर, सम्मुख कभी नहीं टिक पाता, महाकाल का चक्र भयंकर, कोई बचकर भाग न पाता । *मन में कालिख लगी रहे तो रंग बसंती न चढ़ पाता,* *सबमें केवल दोष जो देखे, आगे कभी नहीं बढ़ पाता ।* पहली शर्त लोकहित की है, हम सुधरें, तब युग सुधरेगा, निश्चित ही परिवर्तन होगा, हम बदलें, तब युग बदलेगा । जिसने यह नीति अपनाई, जन्म सफल उसका हो जाता । केवल दिवास्वप्न के बल पर, हाँथ नहीं कुछ भी लग पाता । *मन में कालिख लगी रहे तो रंग बसंती न चढ़ पाता,* *सबमें केवल दोष जो देखे, आगे कभी नहीं बढ़ पाता ।* *-सुधीर भारद्वाज*

जीजी हैं हम सबकी माँ

जब हाथ सर पर आपका, तब चिंता क्या संसार की, आपको सब सौंपकर, चिंता मिटी घरबार की । माँ भगवती का रूप ही है   , और शक्ति इस परिवार की, हमको गोदी में बिठा, हैं स्नेह से पुचकारतीं । एक *चिन्मय* ही नहीं , संतान  हम सब आपकी, आपने उर से लगा थपकी हमें  दी प्यार की । जब कभी मन छटपटाता है उदासी घेरती, तब आप ही संतोष दे पीड़ा हरें परिवार की । उत्साह जब होता विगत , आशा का दामन छूटता, तब आप ही बढ़कर स्वयं, बाहें हमारी थामती । द्वेष की लहरें बड़ी , हैं नाव को ही खींचती , आप सा नाविक मिला,  औकात क्या मझधार की | जो नहीं पाया समझ, अनमोल ममता आपकी, उसका जीवन है वृथा सीमा नहीं दुर्भाग्य की ।                                    - सुधीर भारद्वाज 

नीति काम आती है

अनय जब सर उठाता है, तो नीति काम आती है, यही सद्ज्ञान चिंतन में गुरुसत्ता पिरोती है, अनीति  शस्त्र आधारित, नीति शास्त्र सम्मत है, मगर ये राजनीतिक दृष्टि तो गुड़ गोबर कराती है । कोई कुत्ता हमें काटे, तो क्या हम उसको काटेंगे? करेंगे आत्मरक्षा हम स्वयं ले दंड हाथों में, है ये बात इतनी ही, मगर ये भूल है होती , लेकर पुष्प की आशा कुटिलता कांटे है बोती | किसी निश्छल ह्रदय को हम भले कायरता ही समझें , मगर गहरे समंदर में सदा  लहरें नहीं  होतीं  , सदियों मौन रहते हैं कई भूधर धरा पर भी , मगर जब फूटते ज्वालामुखी, धरती भी तब रोती | कहता कौन है हमको, सहें सबकुछ समय काटें, गिरा दो उन दीवारों को जो आँगन भाई का बांटें, किसी भी स्थिति में श्रेष्ठता विचलित नहीं होती , न डरती है किसी से ये न अपना धैर्य है खोती ।                                          *-सुधीर भारद्वाज*

तेरी हर अदा है सबसे जुदा

जिस बात पर हँसना, उसी पर रूठ जाना है, तुम्हारी हर अदा भी एक उलझा सा फ़साना है ।1। तुम्हारे रक्त अधरों पर हंसी रहती है जो तिरछी, किसी का कत्ल करना और उसको भूल जाना है ।2। जिसे तुम चाहती थीं, अब भी उसे ही चाहती होगी, ये हैं बेकार की बातें , ये किस्सा भी पुराना है ।3। कभी गैरों की पीड़ा पर तुम आँसू भी बहाओगी, ऐसा हो नही सकता, ये तो सपना सुहाना है ।4। तुम्हारी बातों का मतलब, बनारस की गली जैसा, कहीं पर सीधा है चलना, कहीं पर मुड़ के जाना है ।5। किसी से क्या कहा तुमने, कोई वादा निभाना था, कसम सौ बार खाकर के उसे फिर भूल जाना है ।6। न जाने कबसे बैठे हैं, बिछाकर राह में पलकें, आँधी की तरह आ के, तुम्हेँ बस गुज़र जाना है ।7। पहाड़ी रास्तों सा है तेरा बलखाता हुआ यौवन , कहीं धीरे से है मुड़ना, कहीं बस ठहर जाना है ।8। तुम्हारा आना यादों में, और आकर चले जाना, कमल पर ओस  के जैसे, गिरकर बिखर जाना है ।9। कभी हालात का रोना, कभी दुनियां की बंदिशें, न आना हो तुम्हें तो, ये रोज का बहाना है ।10। *'सुधीर'* पहले जैसा था, रहेगा वो हमेशा ही, लाखों कोशिशें कर लो, वो तो पूरा दीवाना है । *-  सुधीर भारद्...

श्रद्धा: *विचार* नहीं *व्यवहार*

*श्रद्धा* है नहीं अभ्यासवश चरणों में झुक जाना, *श्रद्धा* है नहीं पोथी की बातें रटके दुहराना, *श्रद्धा* संगिनी है कर्म की मिलकर मुदित होती, *श्रद्धा* व्यावहारिक सूत्र है खुद करके दिखलाना। *श्रद्धा* साधकों को कर्म में तल्लीन करती है, *श्रद्धा* साधकों के भाव भी शालीन करती है, *श्रद्धा* है नहीं षड्कर्म, मंत्रों में उलझ जाना, *श्रद्धा* है प्रतीकों से ककहरा हमको सिखलाना । *श्रद्धा* रूप लेकर *कर्म* का साकार होती है, *श्रद्धा* संतुलन में *वाणी* का आधार होती है, es *अंतःकरण* की शुद्धि का ही नाम है *श्रद्धा* चुनकर सदगुणों से नीड़ का निर्माण है *श्रद्धा* *श्रद्धा* है नहीं गणवेष और विन्यास आधारित, *श्रद्धा* रक्त की हर बूंद में होती है संचारित,  *श्रद्धा* आत्मा-परमात्मा का योग है करती, *श्रद्धा* मन,वचन और कर्म का संयोग है करती । *श्रद्धा* हो गहन पाषाण को प्रतिमा बनाती है, *श्रद्धा* एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाती है, *श्रद्धा* काली बन ठाकुर को आँचल में सुलाती है, *श्रद्धा* औषधि बन मन के रोगों को मिटाती है,

समर्पण की कथा

"समर्पण" की कथा का त्याग से प्रारंभ है होता, "समर्पण" में सदा सर्वस्व अर्पण ही सहज होता, "समर्पण"   वह नहीं   प्रतिफल की जिसमें हो कोई आशा, "समर्पण"   बीज है जो भूमि में अस्तित्व है खोता | "समर्पण"  धार पर तलवार की निर्भीक हो चलना , "समर्पण"   ऋषि दधीचि का जगतहित अस्थियाँ देना, "समर्पण"  में सदा मीरा को प्याला विष का ही लेना , "समर्पण"  राम के दरबार का हनुमान है बनना | "समर्पण"  बिंदु को भी सिन्धु का सम्मान मिलना है , "समर्पण"  ओस का इक सीप में मोती सा ढलना है, "समर्पण"  संकटों में द्रौपदी का चीर बन जाना , "समर्पण"  कष्ट भी आये तो जीना और मुस्काना | "समर्पण"  है किसी सरिता का सागर में समां जाना, "समर्पण"  है नहीं शब्दों का ग्रन्थाकार बन जाना, "समर्पण"  लक्ष्य अर्जुन का, नहीं है ध्यान भटकाना, "समर्पण"   है सही सिद्धांत जीवन में उतर जाना  |

नया दिनमान नूतन शक्ति लेकर जगमगाएगा

नया दिनमान नूतन शक्ति लेकर जगमगाएगा, श्रद्धा की फसल होगी, मिशन अब लहलहाएगा। हमें विश्वास है गुरु की चिरन्तन दिव्यसत्ता पर , वही साहस हमें देगा, हमें पथ भी दिखायेगा, न हारे हैं, थके हैं और न हमको कोई चिन्ता, चलना है हमें तबतक, न जबतक लक्ष्य आएगा, यही विश्वास हम सबमें नयी आशा जगायेगा, नया दिनमान नूतन शक्ति लेकर जगमगाएगा । वो कोई और होंगे जो रुके, थक  हारकर बैठे, वो कोई और होंगे जो झुके मन मारकर बैठे, अगर निष्ठा निरंतर है क्यों नैराश्य घेरेगा, मिला आशीष गुरु का है सतत ढांढस बंधायेगा , न सिक्का कोई खोटा अब यहाँ पर चलने पायेगा , नया दिनमान नूतन शक्ति लेकर जगमगाएगा । नहीं होगा कोई वंचित, न कोई छूट पायेगा, जो मूर्छित थे पड़े उनपर भी अमृत बरस जायेगा, यही शाश्वत कसौटी है समर्पण और निष्ठा की , नहीं चाहें कोई सम्मान या पदवी प्रतिष्ठा की , मिलेगा जो कृपा से उनकी सबके मन को भायेगा, नया दिनमान नूतन शक्ति लेकर जगमगाएगा । श्रद्धा की फसल होगी, मिशन अब लहलहाएगा , नया दिनमान नूतन शक्ति लेकर जगमगाएगा ।                       - सुधीर भारद्वाज...

मन का मंथन

चेहरा नहीं चरित्र दिखाए , ऐसा दर्पण लीजिये , कभी कभी खुद से भी बातें , मुक्त-ह्रदय से कीजिये | बाहर है रोशनी की लड़ियाँ , अन्दर तिमिर घनेरा है , अंतर्मन का दीप जलाकर , उसको अवसर दीजिये | वन-उपवन भी बहुत लगाये, घर-देहरी और द्वार सजाये , मनोभूमि है सूखी बंजर , उसको भी तो सींचिये | अपने घर और दीवारों को , हमने बहुत सजाया है , मन-मंदिर टूटा-फूटा है, उसकी भी सुध लीजिये | सर्वोच्च हिमालय शिखर छुआ , नील गगन को चूमा है , मन का कोना पड़ा अछूता, उसका मंथन कीजिये | कुछ लोगों ने मर्म को समझा , कुछ ने कुछ का कुछ समझा , बिन समझे प्रतिक्रिया करें क्यूँ  , समझ-समझ कर बोलिए | इस मन की मनमानी भी , बहुत सही है हम सबने | गुरुचरणों में शीश नवाँकर, चरणामृत को पीजिये |