मन की कालिख
*मन में कालिख लगी रहे तो रंग बसंती न चढ़ पाता,*
*सबमें केवल दोष जो देखे, आगे कभी नहीं बढ़ पाता ।*
जिनके आँचल में पल-बढ़ कर , पुष्ट हुए और खेले खाये,
उनकी शान में गुस्ताखी कर, कितने तुमने पाप कमाए?
अब जब प्रश्न पूंछता है जग, कच्चा चिट्ठा है खुलवाता,
काल कड़ाही भेद न करती सब विकार ऊपर आ जाता ।
*मन में कालिख लगी रहे तो रंग बसंती न चढ़ पाता,*
*सबमें केवल दोष जो देखे, आगे कभी नहीं बढ़ पाता ।*
अफवाहों को सत्य मानकर जिसने भी दुंदुभी बजाई,
मन ही मन पछताता होगा, जब उसने है मुंह की खाई,
छिपकर वार जो करता कायर, सम्मुख कभी नहीं टिक पाता,
महाकाल का चक्र भयंकर, कोई बचकर भाग न पाता ।
*मन में कालिख लगी रहे तो रंग बसंती न चढ़ पाता,*
*सबमें केवल दोष जो देखे, आगे कभी नहीं बढ़ पाता ।*
पहली शर्त लोकहित की है, हम सुधरें, तब युग सुधरेगा,
निश्चित ही परिवर्तन होगा, हम बदलें, तब युग बदलेगा ।
जिसने यह नीति अपनाई, जन्म सफल उसका हो जाता ।
केवल दिवास्वप्न के बल पर, हाँथ नहीं कुछ भी लग पाता ।
*मन में कालिख लगी रहे तो रंग बसंती न चढ़ पाता,*
*सबमें केवल दोष जो देखे, आगे कभी नहीं बढ़ पाता ।*
*-सुधीर भारद्वाज*
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