मन का मंथन
चेहरा नहीं चरित्र दिखाए ,
ऐसा दर्पण लीजिये ,
कभी कभी खुद से भी बातें ,
मुक्त-ह्रदय से कीजिये |
बाहर है रोशनी की लड़ियाँ ,
अन्दर तिमिर घनेरा है ,
अंतर्मन का दीप जलाकर ,
उसको अवसर दीजिये |
वन-उपवन भी बहुत लगाये,
घर-देहरी और द्वार सजाये ,
मनोभूमि है सूखी बंजर ,
उसको भी तो सींचिये |
अपने घर और दीवारों को ,
हमने बहुत सजाया है ,
मन-मंदिर टूटा-फूटा है,
उसकी भी सुध लीजिये |
सर्वोच्च हिमालय शिखर छुआ ,
नील गगन को चूमा है ,
मन का कोना पड़ा अछूता,
उसका मंथन कीजिये |
कुछ लोगों ने मर्म को समझा ,
कुछ ने कुछ का कुछ समझा ,
बिन समझे प्रतिक्रिया करें क्यूँ ,
समझ-समझ कर बोलिए |
इस मन की मनमानी भी ,
बहुत सही है हम सबने |
गुरुचरणों में शीश नवाँकर,
चरणामृत को पीजिये |
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