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हिंदी दिवस पर ; बस यूं ही रचित कुछ पंक्तियां

अब कहां संवेदना है जो हृदय की गांठ खोले, स्वार्थ जिनमें न छिपा हो प्यार के दो शब्द बोले । अब सभी गणनाएं जग में केवल धनात्मक रह गईं हैं, कौन है जो सह के घाटा दिल से किसी का मीत होले। इतनी कुशलता हस्तगत  कर ली है मित्रों ने जनाब, भरकर गरल भरपूर उर में घड़ियाली आंसू आंख रोले। अब सभी रिश्ते जगत में रिसते ही दिखते हैं सदा, गुम हुआ है वो फरिश्ता जो किसी के घाव धोले । जिस भवन पर गर्व तुमको ध्वज लगा प्राचीर में, नींव में दीमक लगी है खा जायेगी सब हौले–हौले । तुम मर्सिया गाते रहो, मर्जी तुम्हारी कौन रोके, संसार सारा नृत्यरत है गा रहा है ओले–ओले। सुधीर शांतिकुंज

राममय जगत

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राममय जगत   राम आदर्शों के भी  पुरुष हैं प्रथम, राम शक्ति भी हैं, राम शिव हैं स्वयं राम विश्राम है,  राम जीवन गति, राम ही श्वास है,  राम हैं सद्गति । राम प्रीति की हैं  एक पराकाष्ठा, राम में त्याग तप की  प्रतिष्ठा सदा राम में प्राणियों की अनुरक्ति भी है । राम में त्याग की दिव्य शक्ति भी है । राम पर्याय हैं सिंधु गहराई का, राम अंतिम शिखर जग में ऊंचाई का । राम की शक्ति से सेतुबंधन हुआ, रीछ वानर का भी अभिनंदन हुआ । राम के ही सहारे धरा–धाम है, जग में सबसे परम राम का नाम है ।              —धर्मेंद्र कुमार ‘सुधीर’

सिंदूर

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यह समय की मांग पर , रक्खा गया सिंदूर है, यह धधकती आग है, बलिदान का दस्तूर है । फिर किसी आतंक का  उत्तर नहीं अब मौन है, अब नहीं अबला कोई भी, न कोई मजबूर है । यह नया भारत यहां पर, अब व्यवस्था है नई, अब हमारा शौर्य भी, जग में हुआ मशहूर है । यह नहीं श्रृंगार ,यह उत्तर है उनके पाप का अब क्षमा का स्वप्न भी आंखों से उनकी दूर है । उसने घृणा से जो रचा था ख्वाब था गजवा ऐ हिंद, हो चुका वो भी बिखरकर ख़्वाब चकनाचूर है । इतिहास उनकी हार का, इस बार भी बदला नहीं, पर मूर्खता की हद नहीं, वो दिख रहा मगरुर है । अब न कोई साथ भी दे, या समर्थन पक्ष में, अब हमारे बाजुओं में, शक्ति भी भरपूर है । — सुधीर 31 मई 2025
लगता हूं गले उनके अब आस्तीन चढ़ाके, मिलते हुए न उसमें कहीं सांप डाल दें। बातें तो उनकी रहती हैं शहद की तरह, मधुमक्खी है न जाने कब वो डंक मार दें । गुलदस्ते थामिए मियां अब एहतियात से, ख़ज़र छिपाके सीने में न वो उतार दें। तारीफ़ हो तो सुनिए जरा नापतौल कर, न जाने सरेआम कब  इज़्ज़त उतार दें। चेहरों पे मुखौटा लगाये भोलेपन का वो, तोहमतें लगाके न गर्दन उतार दें । ये हंसते हुए चेहरे हैं ओढ़ा हुआ नकाब, मौका मिला जो इनको हमें चीरफाड़ दें । पहले शरण के नाम पे चौखट पे आ गिरे, डर हमको लग रहा है अब न बस्ती उजाड़ दें ।                                           — सुधीर

संगठन की सद्गति

*संगठन की सद्गति* वर्तमान में किसी भी प्रकार का कोई संगठन चाहे वो राजनैतिक हो अथवा सामाजिक लोगों में एक नई उम्मीद जगाने में सफल होने के बावजूद कुछ कारणों से कुछ समय में ही अप्रासंगिक हो जाता है, उस संगठन के अनुयायियों का यह अप्रत्याशित मोहभंग इस अर्थ में बहुत घातक सिद्ध होता है कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग किसी भी नए अथवा प्रगतिशील प्रयासों को शंका की दृष्टि से देखने लगता है ।  ज्यादातर ऐसे संगठनों में केंद्रीय धुरी की भूमिका निभा रहे आत्मप्रशंसा प्रिय व्यक्ति प्रायः ऐसे लोगों के घेरे में ही अपने आप को सुरक्षित समझते हैं जो स्वयं के मन की मूल भावनाओं और अभिमत को अपने मन में ही दबा कर अपनी वाणी और विचारों में उन्ही शब्दों को स्थान देते हैं जो संगठन का मुखड़ा बने हुए व्यक्तियों को प्रीतिकर अनुभव होते हैं, यह कालांतर में उनके स्वभाव का एक स्थाई संस्कार बन जाता है जो उन्हें एक वृत्त में चहलकदमी कर रहे कृपापात्रों की पंक्ति में लाभकारी स्थान प्रदान करता है जिसमें ना तो कोई सर्वश्री होता है और ना ही कोई तदुपरांत ।  इस गणित को दुनियादारी की दृष्टि से समझने और अपनाने वाले व्यक्तियों ...

कुछ देखा कुछ अनदेखा

इस दुनिया में इन आखों ने, क्या क्या मंजर देखा है, अन्न उगाने वालों को भी, भूखों मरते देखा है । न जाने क्या राज छुपा है, झूठ का पलड़ा भारी है, झूठों के झुण्डों से अक्सर, सच को डरते देखा है । ओ!पानी के पहरेदारों आग लगी है बस्ती में, तुमको हमने तरणताल में, जलक्रीड़ा करते देखा है । जिनकी नेकदिली के किस्से, गूंज रहे अखबारों में, उनकी आस्तीन में हमने, सांपों को पलते देखा है । जिन राहों में धनवानों के, शव पर फूल बरसते हैं, उसी राह में कुछ लोगों को कांटों पर चलते देखा है । - सुधीर 5 जुलाई 2024

गजल

किसने चाहा था कि वो केवल यहां जिंदा रहे, हाथ फैलाए, गिरे घुटनों पे और शर्मिंदा रहे। शुतुरमुर्गों ने सिर घुसाया धूर्तता की रेत में, उनको क्या चिंता कि हम मर जाएं या जिंदा रहें। सत्य चीखा और चिल्लाया मगर चुप हो गया नारे लगाने वाले उसकी लाश पर जिंदा रहे । त्याग और उत्सर्ग की गूंजी ऋचाएं थी जहां, अब वहां सिद्धांत केवल कागज़ी जिंदा रहे । अब नहीं कोई मसीहा आने वाला है यहां, आत्माएं मर गई सब जिस्म ही जिंदा रहे ।                                                    - सुधीर