संगठन की सद्गति
*संगठन की सद्गति*
वर्तमान में किसी भी प्रकार का कोई संगठन चाहे वो राजनैतिक हो अथवा सामाजिक लोगों में एक नई उम्मीद जगाने में सफल होने के बावजूद कुछ कारणों से कुछ समय में ही अप्रासंगिक हो जाता है, उस संगठन के अनुयायियों का यह अप्रत्याशित मोहभंग इस अर्थ में बहुत घातक सिद्ध होता है कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग किसी भी नए अथवा प्रगतिशील प्रयासों को शंका की दृष्टि से देखने लगता है ।
ज्यादातर ऐसे संगठनों में केंद्रीय धुरी की भूमिका निभा रहे आत्मप्रशंसा प्रिय व्यक्ति प्रायः ऐसे लोगों के घेरे में ही अपने आप को सुरक्षित समझते हैं जो स्वयं के मन की मूल भावनाओं और अभिमत को अपने मन में ही दबा कर अपनी वाणी और विचारों में उन्ही शब्दों को स्थान देते हैं जो संगठन का मुखड़ा बने हुए व्यक्तियों को प्रीतिकर अनुभव होते हैं, यह कालांतर में उनके स्वभाव का एक स्थाई संस्कार बन जाता है जो उन्हें एक वृत्त में चहलकदमी कर रहे कृपापात्रों की पंक्ति में लाभकारी स्थान प्रदान करता है जिसमें ना तो कोई सर्वश्री होता है और ना ही कोई तदुपरांत ।
इस गणित को दुनियादारी की दृष्टि से समझने और अपनाने वाले व्यक्तियों के स्वभाव व शैली की यह विशेषता धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व में इस तरह घुल जाती है कि वे कब नितांत औपचारिक और असंवेदनशील हो गये पता ही नहीं चलता है l यह प्रक्रिया बाद में उनके संगठन का चरित्र भी बन जाती है l अल्प अवधि में सतही आकलन में तो ऐसे संगठनो में छद्म एकता और एकरूपता दिखाई पड़ती है पर दीर्घ अवधि में काल की कसौटी पर कसे जाने पर इनकी तुलना पुरानी इमारतों पर लगी लकड़ी की चौखटों से की जा सकती है जो देखने में तो सजावटी मालूम पड़ती पर आंतरिक रूप से उसकी मजबूती दीमकों की निरंतर सक्रियता का शिकार बन चुकी होती है l
ऐसे संगठन अपने वर्तमान से असंतुष्ट, परिस्थितियों को अपने बूते बदलने में असमर्थ, निरंतर चुनौतीपूर्ण होती जा रही सामाजिक परिस्थितियों से तालमेल बिठा पाने में असमर्थ , और निर्विकार भाव से भोलेपन का स्वांग रचने में निपुण लोगों को इन संगठनों का अनुयाई बना देती है l ऐसे तत्वों के सम्मिश्रण से निर्मित संगठन अपने आकार प्रकार से जनमानस को प्रथम दृष्टि में प्रभावित तो करते हैं, पर उससे जुड़े व्यक्तियों में विचारों की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मुखरता का अभाव होने के अपने रहनुमाओं की आज्ञाओं का मौन रहकर निर्विकार पालन ही उनकी संगठनात्मक योग्यता उपयोगिता का आधार बन जाता हैl
काल की कसौटी पर परखा हुआ सत्य ये है कि इतिहास बदलने और बनाने वाले संगठन केवल सिपाही सेनानियों से नहीं बनते संगठन की उत्तरजीविता तभी संभव है जब उसमें विवेक सम्मत परिवर्तनों को समझने और कार्यान्वित करने वाली दूसरी तीसरी और चौथी पंक्ति में समर्पित भाव से सक्रिय जन शक्ति का अस्तित्व भी मायने रखता हो । जिस संगठन की तंत्रिकाओं में स्वतंत्र विचारों का रुधिर प्रवाहित ना होता हो उसकी कोशिकाएं धीरे-धीरे मृत होने लगती है और यह मृत कोशिकाएं अंततः कैंसर बनकर संगठन के समूचे अस्तित्व पर ही एक प्रश्न चिह्न लगा देती हैं ।
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