गजल

किसने चाहा था कि वो केवल यहां जिंदा रहे,
हाथ फैलाए, गिरे घुटनों पे और शर्मिंदा रहे।

शुतुरमुर्गों ने सिर घुसाया धूर्तता की रेत में,
उनको क्या चिंता कि हम मर जाएं या जिंदा रहें।

सत्य चीखा और चिल्लाया मगर चुप हो गया
नारे लगाने वाले उसकी लाश पर जिंदा रहे ।

त्याग और उत्सर्ग की गूंजी ऋचाएं थी जहां,
अब वहां सिद्धांत केवल कागज़ी जिंदा रहे ।

अब नहीं कोई मसीहा आने वाला है यहां,
आत्माएं मर गई सब जिस्म ही जिंदा रहे ।
                                                   - सुधीर

Comments

Popular posts from this blog

सिंदूर

पाथेय