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Showing posts from April, 2022

इंसान तो इंसान है

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जिन्दा लाशें घूमती है,  मर चुका इन्सान है,  बस शहर के नाम पर  पसरा हुआ शमसान है । चौपाल की बातों से गायब  खेत हैं खलिहान हैं अब मौसमों का भी कोई  करता नहीं अनुमान है। अब किसी के जख्म पर  रोना सिसकना जुर्म है,  बन्द हैं सब खिड्‌कियाँ,  सहमा हुआ इन्सान है। इंद्रधनुषी रंग जब बिखरे हुए सर्वत्र हैं क्यों रंग सबने चुन लिये सबकी अलग पहचान है । देह की देहरी को ही जो लक्ष्य अपना मानते हैं प्यार की राहें सभी उनके लिए सुनसान हैं ।

लोग

इस  दुनिया में जाने कितने हैं जाने अनजाने लोग, झूठे दिल से सच्ची कसमें  , हरदम खाने वाले लोग । हाथों पर उभरी रेखा से , जीवन नहीं दिशा पाता है, खुद भी किस्मत पर रोते हैं , भाग्य बताने वाले लोग । कभी  नहीं सोचा करते हैं , फल इनमें कब आएगा, दिल से कितने दरियादिल हैं  , पेड़ लगाने वाले लोग । उनसे क्यों उम्मीद  रक्खें हम , कभी काम में आएंगे, फूल नहीं बांटा करते हैं, आग लगाने वाले लोग । श्वेत कपोत उड़ाकर खुश है , खादीधारी नेतागण, क्योंकि सरहद पर खड़े हुए हैं, जान लुटाने वाले लोग । ये जंगल है यहाँ पे कोई , नियम नहीं है चलने का, खुद को अपवाद बना लेते हैं, नियम बनाने वाले लोग । जिन भवनों की भव्य कहानी, पढ़कर सुनकर सब खुश हैं, जने कबके भुला चुके हम, नींव बनाने वाले लोग । - सुधीर भारद्वाज

अगर कुछ ऐसा हो जाये

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पकड़ लें हाथ गुरुवर का तो बेड़ा पार हो जाये , अगर हम खुद सुधर जायें तो युग निर्माण हो जाये | नहीं रह पायेगा कोई  विवश साधन अभावों में,  यदि मिल बाँटकर खाना हमें स्वीकार हो जाये । करेंगे क्या बनाकर अब ये महलों गुम्बदों को हम,  यदि घर से दु:खी होकर जुदा सन्तान हो जाये। बाँटे रेवड़ी अन्धे यदि अपनों को चुन चुनकर कर,  है मुमकिन उस व्यवस्था में नगर सुनसान हो जाये । मिटा दें अब लकीरें हम  कनिष्ठों और वरिष्ठों की,  सही सर्थों में ये गायत्री - का परिवार हो जाये । नहीं है दूर मन्जिल अब, कोई दुर्गम ठिकाना भी, हमारी कोशिसें सच में  अगर अभियान हो जायें | निकलेगा नया सूरज, तिमिर इतिहास होगा अब, यदि नव पीढ़ियों के हाथ में - फिर मशाल हो जाये। - सुधीर भारद्वाज
कैसे कैसे लोग  इस  दुनिया में जाने कितने  हैं जाने अनजाने लोग, झूठे दिल से सच्ची कसमें  , हरदम खाने वाले लोग ।  हाथों पर उभरी रेखा से , जीवन नहीं दिशा पाता है, खुद भी किस्मत पर रोते हैं ,  भाग्य बताने वाले लोग ।  कभी  नहीं सोचा करते हैं , फल इनमें कब आएगा, दिल से कितने दरियादिल हैं  , पेड़ लगाने वाले लोग ।  उनसे क्यों उम्मीद  रक्खें हम ,  कभी काम में आएंगे, फूल नहीं बांटा करते हैं, आग लगाने वाले लोग ।  श्वेत कपोत उड़ाकर खुश है ,  खादीधारी नेतागण,  सरहद पर क्योंकि  खड़े हुए हैं, जान लुटाने वाले लोग ।  ये जंगल है यहाँ पे कोई , नियम नहीं है चलने का, खुद को अपवाद बना लेते हैं,  नियम बनाने वाले लोग ।  जिन भवनों की भव्य कहानी,  पढ़कर सुनकर सब खुश हैं, जाने कबसे  भुला चुके हम,  नींव बनाने वाले लोग ।  - सुधीर भारद्वाज