मन का संग्राम
मैं सदा प्यासी नदी हूँ प्यार की,
रीत मुझको रोकती संसार की,
कौन मन को बाँध पाया है कभी,
मन के इस संग्राम में हारे सभी ।
आज हमने है छुआ जिसको पुलककर,
दूर हो जाएगा वो पल में छिटककर,
माझी बिना कैसे ये पहुंचे पार नैया,
सलवटों के बोझ से बोझिल है शैया ।
मन के घट में है क्षुधा संचित हुई,
प्यासे अधरों से सदा वंचित हुई,
ज़िन्दगी की पाति कोने से फटी है,
भाग्यरेखा है नहीं गहरी, कटी है ।
मुझको लगता है यदि संसार न होता,
फिर किसी को भी किसी से प्यार न होता,
क्या ये बंधन मन को कभी भी भायेगा,
यह सुनिश्चित है कि जी भर जाएगा ।
मौन पीले पात सा झर जाएगा,
जब हमारा मीत सम्मुख आएगा
फिर खुलेंगे बंधन सभी संकोच के,
आज हैं हर्षित बहुत ये सोच के।
रीत मुझको रोकती संसार की,
कौन मन को बाँध पाया है कभी,
मन के इस संग्राम में हारे सभी ।
आज हमने है छुआ जिसको पुलककर,
दूर हो जाएगा वो पल में छिटककर,
माझी बिना कैसे ये पहुंचे पार नैया,
सलवटों के बोझ से बोझिल है शैया ।
मन के घट में है क्षुधा संचित हुई,
प्यासे अधरों से सदा वंचित हुई,
ज़िन्दगी की पाति कोने से फटी है,
भाग्यरेखा है नहीं गहरी, कटी है ।
मुझको लगता है यदि संसार न होता,
फिर किसी को भी किसी से प्यार न होता,
क्या ये बंधन मन को कभी भी भायेगा,
यह सुनिश्चित है कि जी भर जाएगा ।
मौन पीले पात सा झर जाएगा,
जब हमारा मीत सम्मुख आएगा
फिर खुलेंगे बंधन सभी संकोच के,
आज हैं हर्षित बहुत ये सोच के।
बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteगोपी गीत समान।
गोपियों का कृष्ण विरह वेदना और उनसे मिलन की तीव्र अभिलाषा की आश का सजीव वर्णन।
आप सभी मित्रों द्वारा प्रोत्साहन ही मेरी प्रेरणा है ।
Deleteबहुत ही सुन्दर है,भाईसाब, अप्रतिम
ReplyDeleteऐसे ही उत्साह और प्रेरणा देते रहें, धन्यवाद
Deleteमैं सदा प्यासी नदी हूँ प्यार की,
ReplyDeleteरीत मुझको रोकती संसार की,
व्याकुल मन का जीवंत मंथन