अनमना सा मन बहुत है
कभी कभी मन की मनमर्जी,
कुछ अनजानी चाहों में,
क्यों भटकाती रहती हैं,
कुछ आधी अधूरी राहों में ।
मुझको क्यों लगता था हरदम
की तुझमें रोमांच बहुत है,
शीतलता की थी अभीप्सा,
पर तुझमें तो आँच बहुत है ।
मन मूरख ये समझ न पाया,
हीरे की पहचान कठिन है,
चम-चम करती इस दुनिया में,
रंगबिरंगे काँच बहुत हैं ।
प्यार सरल रेखा पर चलना,
एक बिंदु , बिंदू से मिलना,
पर हर पग ठिठका, सहमा है,
इस पग के सच की जाँच बहुत है ।
आतुर मन न ठहरा पलभर,
मृग मरीचिका को सच माना,
कभी कहीं मन पहुँच न पाया,
कुछ अनजानी चाहों में,
क्यों भटकाती रहती हैं,
कुछ आधी अधूरी राहों में ।
मुझको क्यों लगता था हरदम
की तुझमें रोमांच बहुत है,
शीतलता की थी अभीप्सा,
पर तुझमें तो आँच बहुत है ।
मन मूरख ये समझ न पाया,
हीरे की पहचान कठिन है,
चम-चम करती इस दुनिया में,
रंगबिरंगे काँच बहुत हैं ।
प्यार सरल रेखा पर चलना,
एक बिंदु , बिंदू से मिलना,
पर हर पग ठिठका, सहमा है,
इस पग के सच की जाँच बहुत है ।
आतुर मन न ठहरा पलभर,
मृग मरीचिका को सच माना,
कभी कहीं मन पहुँच न पाया,
अंदर ही संग्राम बहुत है ।।
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