आस्था पर मूढ़ता के रंग

आस्था पर मूढ़ता के रंग अब चढ़ने लगे हैं ,
धर्मभीरु बन के हम अभिनय बहुत करने लगे हैं ।

दर्पणों से झांकते प्रतिबिम्ब मिथ्या बोलते हैं,
किरदार पीछे जो छिपे क्या उसकी परतें खोलते हैं ?
स्नेह के सम्बन्ध में अनुबंध की शर्तें जुड़ी हैं,
त्याग को भी लोग अब, धन की तुला पर तोलते हैं ।

सत्य के मानक सभी सत्संग में ही दीखते हैं,
मात्र सुनते हैं सभी,कब इससे कुछ भी सीखते हैं ।

सत्य के ग्राहक बहुत हैं शब्दों के व्यापार मेंं,
पर सत्य कर बाँधे खड़ा है झूठ के संसार में,
लख चौरासी को यहाँ अब मार्ग नूतन मिल गया है,
आदमी की सोच में पशुता का लक्षण घुल गया है।

कलयुगी कोहरे घने संसार पर अब छा रहे हैं,
मूर्छित देवत्व है, दानव प्रभाती गा रहे हैं ।

डोर इतनी भी नहीं उलझी कि खुल ना पायेगी,
बात इतनी भी नहीं बिगड़ी की बन ना पायेगी,
छोड़ कर अवसाद, क्रन्दन, कर्म कुछ करना पड़ेगा,
साधना के शौर्य से इतिहास नव गढ़ना पड़ेगा।

देवता के दूत हम, शुभकर्म में निशदिन लगेंगे,
राह जो गुरु ने दिखाई, दृढ़ कदम उस पर चलेंगे।

-सुधीर भारद्वाज

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