जो चाहा वो मिल न पाया

इन्सा अब मजबूर हो गया,
थक के गम से चूर हो गया,
खोजे उसने अमित लोक पर,
खुद से कितना दूर हो गया |


जाने कितने दीप जलाये,
घर, देहरी और द्वार सजाये,|
बाहर का अँधियारा भागा,
अंतर्मन बेनूर हो गया |


रूप बनाया बहुत सजीला,
अंतस हो ना सका चमकीला,
काया कंचन सी निखरी पर,
अन्दर से लंगूर हो गया |


शब्द मंच तक ही हैं सीमित ,
हुआ ना उन से कभी लोकहित,
पोथी की बातें रट-रट के,
तोतों सा मशहूर हो गया |


मुर्गे ने जब बांग लगाई,
समझा मैंने सुबह बुलाई ,
प्राची से जब निकला सूरज, 
अहंकार तब चूर हो गया |


अगणित सगरपुत्र हैं मूर्छित,
किन्तु भगीरथ खड़े अविचलित,
भस्मासुर है बनी मनुजता 
जीवन अब  नासूर हो गया |


जो चाहा  वो मिल न पाया,
एड़ी-चोटी जोर लगाया ,
मन तो है  चालाक लोमड़ी,
पर खट्टा अंगूर हो गया |

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