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Showing posts from April, 2025
लगता हूं गले उनके अब आस्तीन चढ़ाके, मिलते हुए न उसमें कहीं सांप डाल दें। बातें तो उनकी रहती हैं शहद की तरह, मधुमक्खी है न जाने कब वो डंक मार दें । गुलदस्ते थामिए मियां अब एहतियात से, ख़ज़र छिपाके सीने में न वो उतार दें। तारीफ़ हो तो सुनिए जरा नापतौल कर, न जाने सरेआम कब  इज़्ज़त उतार दें। चेहरों पे मुखौटा लगाये भोलेपन का वो, तोहमतें लगाके न गर्दन उतार दें । ये हंसते हुए चेहरे हैं ओढ़ा हुआ नकाब, मौका मिला जो इनको हमें चीरफाड़ दें । पहले शरण के नाम पे चौखट पे आ गिरे, डर हमको लग रहा है अब न बस्ती उजाड़ दें ।                                           — सुधीर