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अनमना सा मन बहुत है

कभी कभी मन की मनमर्जी, कुछ अनजानी चाहों में, क्यों भटकाती रहती हैं, कुछ आधी अधूरी राहों में । मुझको क्यों लगता था हरदम की तुझमें रोमांच बहुत है, शीतलता की थी अभीप्सा, पर तुझमें तो आँच बहुत है । मन मूरख ये समझ न पाया, हीरे की पहचान कठिन है, चम-चम करती इस दुनिया में, रंगबिरंगे काँच बहुत हैं । प्यार सरल रेखा पर चलना, एक बिंदु , बिंदू से मिलना, पर हर पग ठिठका, सहमा है, इस पग के सच की जाँच बहुत है । आतुर मन न ठहरा पलभर, मृग मरीचिका को सच माना, कभी कहीं मन पहुँच न पाया, अंदर ही संग्राम बहुत है ।।