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हिंदी दिवस पर ; बस यूं ही रचित कुछ पंक्तियां

अब कहां संवेदना है जो हृदय की गांठ खोले, स्वार्थ जिनमें न छिपा हो प्यार के दो शब्द बोले । अब सभी गणनाएं जग में केवल धनात्मक रह गईं हैं, कौन है जो सह के घाटा दिल से किसी का मीत होले। इतनी कुशलता हस्तगत  कर ली है मित्रों ने जनाब, भरकर गरल भरपूर उर में घड़ियाली आंसू आंख रोले। अब सभी रिश्ते जगत में रिसते ही दिखते हैं सदा, गुम हुआ है वो फरिश्ता जो किसी के घाव धोले । जिस भवन पर गर्व तुमको ध्वज लगा प्राचीर में, नींव में दीमक लगी है खा जायेगी सब हौले–हौले । तुम मर्सिया गाते रहो, मर्जी तुम्हारी कौन रोके, संसार सारा नृत्यरत है गा रहा है ओले–ओले। सुधीर शांतिकुंज